डोंगरगढ़। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध शक्तिपीठ मां बम्लेश्वरी देवी मंदिर में गुरुवार शाम परंपरागत पूजा को लेकर विवाद की स्थिति बन गई। प्रशासन और राजपरिवार के सदस्यों के बीच हल्का तनाव तब उत्पन्न हुआ जब राजघराने से जुड़े राजकुमार भवानी बहादुर सिंह करीब 50–60 आदिवासी श्रद्धालुओं के साथ पहाड़ी पर स्थित एक स्थल पर पारंपरिक पूजा कर रहे थे।
बलि की सूचना से हरकत में आया प्रशासन
मंदिर प्रबंधन को सूचना मिली कि पूजा स्थल पर “बकरे की बलि” दी जा रही है। सूचना मिलते ही प्रशासन हरकत में आ गया और एसडीएम एम. भार्गव, एसडीओपी आशीष कुंजाम सहित पुलिस बल मौके पर पहुंचा। टीम ने स्थिति को शांत किया और सभी श्रद्धालुओं को देर रात तक शांति से नीचे उतार दिया।
राजकुमार की सफाई – “हम बलि देने नहीं, परंपरागत पूजा करने गए थे”
राजकुमार भवानी बहादुर सिंह ने साफ किया कि उन्होंने किसी प्रकार की बलि नहीं दी थी। वे केवल अपने कुल की पारंपरिक पद्धति से “गढ़ माता” की पूजा करने पहुंचे थे।
उन्होंने कहा —
“हमारे कुल में दो नवरात्र मनाए जाते हैं। एक नवरात्र के पूर्ण होने पर यदि कोई बाधा या मृत्यु जैसी घटना होती है तो बैगा पद्धति से पूजा जरूरी होती है, ताकि गढ़ माता शांत रहें। हमें सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की जानकारी है। हम बलि देने नहीं गए थे, बस अपने रीति-रिवाज के अनुसार पूजा कर रहे थे।”
राजकुमार ने आगे कहा कि उनके दादा राजा बीरेन्द्र बहादुर सिंह ने यह मंदिर संचालन के लिए ट्रस्ट को सौंपा था, स्वामित्व के लिए नहीं।
“अगर हमारी पूजा पद्धति से किसी को आपत्ति है, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। प्रशासन को तय करना चाहिए कि क्या हमें अपनी संस्कृति और परंपरा छोड़नी होगी?”
उन्होंने यह भी कहा कि डोंगरगढ़ का पहाड़ किसी एक का नहीं, बल्कि जनआस्था का प्रतीक है।
“हम मां की पूजा करने गए थे, प्रशासन ने गलतफहमी में रोक दिया।”
प्रशासन का पक्ष
डोंगरगढ़ एसडीएम एम. भार्गव ने बताया कि सूचना मिलने पर टीम मौके पर पहुंची और स्थिति को शांति से संभाला गया।
“मां बम्लेश्वरी मंदिर परिसर में किसी प्रकार की पशु बलि की अनुमति नहीं है। सूचना गलत निकली — श्रद्धालु सिर्फ पारंपरिक पूजा कर रहे थे, जिन्हें समझाकर शांतिपूर्वक नीचे भेजा गया।”
पृष्ठभूमि: परंपरा बनाम व्यवस्था
मां बम्लेश्वरी मंदिर का संचालन मां बमलेश्वरी ट्रस्ट द्वारा किया जाता है, जिसकी स्थापना राजा बीरेन्द्र बहादुर सिंह ने की थी।
पिछले कुछ वर्षों में ट्रस्ट, राजपरिवार और आदिवासी समाज के बीच पारंपरिक पूजा पद्धतियों को लेकर कई बार मतभेद सामने आ चुके हैं।
हालिया घटना ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है — धार्मिक परंपराओं और प्रशासनिक व्यवस्था के बीच संतुलन की रेखा कहां खींची जाए?
